देशभक्ति

यह एक ऐसी कविता है मित्रों , जिसे अभी भी याद करते हुए यह अनुभूति होती है मानो शरीर का रोम-रोम देशभक्ति की भावना से रोमांचित हो उठा है। यह कविता है हमारे प्रिय अमर नेता - नेताजी सुभाष चन्द्र बोस पर, उनके जोश पर, उनके भारत को अंग्रेजी शाषन से मुक्त कराने के उन्माद पर, एवं उसे प्राप्त करने हेतु उनकी, बिखरे हुए उस समय के भारत के जनसमूह को एकत्रित और संगठित करने के कार्य पर।

कविता का शीर्षक है - खूनी हस्ताक्षर 
कवि - गोपाल प्रसाद  'व्यास'

वह ख़ून कहो किस मतलब का, 
जिसमें उबाल का नाम नहीं!  
वह ख़ून कहो किस मतलब का, 
आ सके देश के काम नहीं! 

वह ख़ून  कहो किस मतलब का, 
जिसमे जीवन न रवानी है! 
जो परवश हो कर बहता  है,
वह ख़ून  नहीं है पानी है! 

उस दिन लोगों ने सही सही, 
खूं  की कीमत पहचानी थी।  
जिस दिन सुभाष ने बर्मा में, 
मांगी उनसे कुर्बानी थी।  

बोले, "स्वतंत्रता की ख़ातिर,
बलिदान तुम्हें करना होगा,
तुम बहुत जी चुके हो जग में,
लेकिन आगे मारना होगा। 

आज़ादी के चरणों में जो ,
जयमाल चढ़ाई जायेगी। 
वह सुनो तुम्हारे शीशों के,
फूलों से गूंथी जायेगी। 

आज़ादी का संग्राम कहीं 
पैसे पे खेल जाता है ?
यह शीश काटने का सौदा 
नंगे सर झेला जाता है 

आज़ादी का इतिहास कहीं 
काली स्याही लिख पाती है ?
इसको लिखने के लिए 
खूं  की नदी बहाई जाती है।"

यूँ कहते कहते वक्ता की 
आँखों में ख़ून उतर आया। 
मुख रक्तवर्ण हो गया 
दमक उठी उनकी रक्तिम काया!

आजानुबाहु ऊँची कर के 
वे बोले, "रक्त मुझे देना। 
इसके बदले में भारत की 
आज़ादी तुम मुझसे लेना।"

हो गयी सभा में उथल-पुथल,
सीने में दिल न समाते थे। 
स्वर इंक़लाब के नारों के 
कोसों तक छाये जाते थे। 

"हम देंगे देंगे ख़ून"
शब्द बस यही सुनाई देते थे,
रण  में जाने को युवक खड़े,
तैयार दिखाई देते थे। 

बोले सुभाष, "इस तरह नहीं,
बातों से मतलब सरता है। 
लो यह काग़ज़, कौन यहाँ,
आकर हस्ताक्षर करता है?

इसको भरने वाले जान को 
सर्वस्व समर्पण करना है,
अपना तन-मन-धन-जान-जीवन 
माता को अर्पण करना है। 

पर येह साधारण पत्र नहीं,
आज़ादी का परवाना है। 
इस पर तुमको अपने तन का,
कुछ उज्जवल रक्त गिराना है। 

वह आगे आये जिसके तन में,
ख़ून भारतीय बहता हो। 
वह आगे आये जो अपने को,
हिंदुस्तानी कहता हो। 

वह आगे आये जो इस पर, 
ख़ूनी हस्ताक्षर देता हो।  
मैं क़फ़न बढ़ाता हूँ, आये जो,
इसको हँसकर लेता हो!"

सारी जनता हुंकार उठी -
हम आते हैं, हम आते हैं। 
माता के चरणों में यह लो 
हम अपना रक्त चढ़ाते हैं। 

साहस से बढ़े युवक उस दिन,
देखा बढ़ते ही आते थे। 
चाक़ू-छुरी कटारियों से,
अपना रक्त गिराते थे!

फ़िर उसी रक्त की स्याही में,
वे अपनी कलम डुबाते थे!
आज़ादी के परवाने पे,
हस्ताक्षर करते जाते थे!

उस दिन तारों ने देखा था,
हिन्दुस्तानी विश्वास नया। 
जब लिखा था रणवीरों ने,
खूं से अपना इतिहास नया। 


1 comment:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 10 जून 2017 को लिंक की जाएगी ....
    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
    

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