कविता - मंज़िल दूर नहीं
कवि - रामधारी सिंह दिनकर
वह प्रदीप जो दिख रहा है
झिलमिल दूर नहीं है।
थक कर बैठ गए क्या भाई!
मंज़िल दूर नहीं है।
अपनी हड्डी की मशाल से
हृदय चीरते तम का,
सारी रात चले तुम दुःख-
झेलते कुलिश निर्मल का,
एक खेय है शेष
किसी विध पार उसे कर जाओ,
वह देखो उस पार चमकता है
मंदिर प्रियतम का।
आकर इतना पार फिरे,
वह सच्चा शूर नहीं है।
थक कर बैठ गए क्या भाई!
मंज़िल दूर नहीं है।
दिशा दीप्त हो उठी प्राप्त कर
पुण्य प्रकाश तुम्हारा,
लिखा जा चुका अनल अक्षरों में
इतिहास तुम्हारा,
जिस मिटटी ने लहू पीया
वह फूल खिलायेगी ही,
अम्बर पर घन बन छाएगा
ही उच्छवास तुम्हारा।
और अधिक ले जांच,
देवता इतना क्रूर नहीं है।
थक कर बैठ गए क्या, भाई!
मंज़िल दूर नहीं है।
मंज़िल दूर नहीं है।
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