एक प्रेरणादायी ग़ज़ल

ग़ज़ल 

रचनाकार - दुष्यंत कुमार 

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है,
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है। 

एक चिनगारी कहीं से ढूंढ लाओ दोस्तों,
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है। 

एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी,
आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है। 

एक चादर साँझ ने सारे नगर पर दाल दी,
यह अंधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है। 

निर्वचन मैदान में लेती हुई है जो नदी,
पत्थरों से, ओट में जा-जाके बतियाती तो है। 

दुःख नहीं कोई की अब उपलब्धियों के नाम पर,
और कुछ हो या ना हो, आकाश-सी छाती तो है। 

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