इधर भी गधे हैं, उधर भी गधे हैं

कविता - इधर भी गधे हैं, उधर भी गधे हैं
कवि - ओम प्रकाश आदित्य 

इधर भी गधे हैं, उधर भी गधे हैं।
जिधर देखता हूँ, गधे ही गधे हैं।
गधे हँस रहे, आदमी रो रहा है।
हिन्दोस्तां में, ये क्या हो रहा है।

जवानी का आलम, गधों के लिए है। 
ये रसिया ये बालम, गधों के लिए है। 
ये दिल्ली ये पालाम, गधों के लिए है। 
ये संसार सालम, गधों के लिए है। 

पिलाए जा साकी, पिलाए  जा डट के। 
तू व्हिस्की के मटके पे मटके पे मत्के। 
मैं दुनिया को अब भूलना चाहता हूँ। 
गधों की तरह झूलना चाहता हूँ। 

घोड़ों को मिलती नहीं घास देखो। 
गधे खा रहे हैं, च्यवनप्राश देखो। 
यहाँ आदमी की कहाँ कब बनी है। 
ये दुनिया गधों के लिए ही बनी है। 

जो गलियों में डोले, वो कच्चा गधा है। 
जो कोठे पै बोले, वो सच्चा गधा है। 
जो खेतों में दिखे, वो फसली गधा है। 
जो माइक पै चीखे, वो असली गधा है। 

मैं क्या बक गया हूँ, ये क्या कह गया हूँ। 
नशे की पिनक में, कहाँ बह गया हूँ। 
मुझे माफ़ करना, मैं भटका हुआ था। 
वो ठर्रा था भीतर, जो अटका हुआ थ। 

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